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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी



वैश्या की लड़की
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बचपन से ही कुलीन घर की लड़कियों के साथ मिलते-जुलते रहने के कारण उनके रीति-रिवाजों को देखते-देखते छाया के हृदय में एक कुल-वधू का जीवन बिताने की प्रबल उत्कंठा जाग्रत हो उठी थी। प्रमोद के साथ विवाह-सूत्र में बंधकर छाया ने उसी सुख का अनुभव किया।

वह एक कुल-वधू की ही तरह प्रमोद के इशारों पर नाचना चाहती थी। प्रमोद के नहा चुकने पर अपने हाथ से ही वह प्रमोद के कपड़े धोती, अभ्यस्त न होने पर भी दोनों समय प्रमोद के लिए वह अपने ही हाथ से भोजन बनाती; और थाली परोसने के बाद जब तक प्रमोद भोजन करते, वह उन्हें पंखा झला करती। प्रमोद के भोजन कर चुकने के बाद उनकी जूठी थाली में भोजन करने में वह एक अकथनीय सुख का अनुभव करती।

इसके पहले इस प्रकार काम करने का उसके जीवन में कभी अवसर न आया था, किंतु धीरे-धीरे उसने अपने आपको ऐसा अभ्यस्त कर लिया कि उसे कोई काम करने में कठिनाई न पड़ती । राजरानी को पुत्री की परिस्थितियों का पता लगता ही रहता था। वह सोचती कि मेरे साथ रहकर छाया यहाँ रानियों की तरह हुकूमत कर सकती थी, बड़े-बड़े विद्वान, रईस तक यहाँ आकर, उसकी कदमबोसी कर जाया करते; किंतु उसकी तो मति ही पलट गई है। अपने आप ही उसने दासियों का-सा जीवन स्वीकार कर लिया है।

छाया को किसी प्रकार फिर से अपने चँगुल में फाँस लेने के प्रयत्न में वह अब भी लगी रहती । वह सोचती ऐश-आराम में पली हुई लड़की कितने दिनों तक कष्ट का जीवन बिता सकेगी? कभी-न-कभी चेतेगी और आवेगी! किंतु छाया? छाया तो माता के घर के ऐश-आराम को घृणा की दृष्टि से देखती थी। यहाँ वह इस कष्ट में भी जिस सुख का अनुभव करती, उसकी आत्मा को जितनी शांति मिलती थी, उस रूप के हाट में, उस वैभव की चकाचौंध में उसके शतांश का भी स्वप्न देखना छाया के लिए दुराशा मात्र थी। छाया प्रमोद के विशुद्ध और पवित्र प्रेय के ऊपर संसार की सारी विभूतियों को निछावर कर सकती थी। प्रमोद के साथ यह छोटा-सा मकान उसे नंदन-वन से भी अधिक सुहावना जान पड़ता था। सारांश यह कि छाया को कोई इच्छा न थी । प्रमोद का प्यार और उनके चरणों की सेवा का अधिकार वह सब कुछ पा चुकी थी।

प्रमोद के विवाह के बाद, प्रमोद के माता-पिता ने उन्हें अपने परिवार में सम्मिलित नहीं किया। अपने इकलौते बेटे को त्याग देने में उन्हें कष्ट बहुत था, किंतु प्रमोट के इस कृत्य ने समाज में उनका सिर नीचा कर दिया था; अतएव वह प्रमोद को क्षमा न कर सके। स्वाभिमानी प्रमोद ने भी माता-पिता से क्षमा की याचना न की; अपनी समझ में उन्होंने कोई बुरा काम न किया था। इसलिए शहर में ही पिता ने कई मकानों के रहने पर भी वे किराए के मकान में रहने लगे। परिवार और समाज ने प्रमोद को त्याग दिया था; किंतु उनके कुछ अपने ऐसे मित्र थे जो उन्हें इस समय भी अपनाए हुए थे। अपने इस छोटे से, इने-गिने मित्रों के संसार में छाया के साथ रहकर प्रमोद को अब और किसी वस्तु की आवश्यकता न थी।

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